भारतीय संविधान का 42वां संशोधन, जिसे आधिकारिक रूप से संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 के नाम से जाना जाता है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल (25 जून 1975 – 21 मार्च 1977) के दौरान लागू किया गया था। इस संशोधन का उद्देश्य संविधान में व्यापक परिवर्तन लाना था, और इसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे विवादास्पद संशोधन माना जाता है। यह संशोधन 3 जनवरी 1977 को लागू हुआ और इसके अन्य प्रावधान 1 फरवरी और 1 अप्रैल 1977 से लागू हुए।
42वें संशोधन के प्रमुख बिंदु
42वें संशोधन ने संविधान के कई महत्वपूर्ण हिस्सों को बदल दिया, जिसमें प्रस्तावना और संविधान संशोधन खंड शामिल थे। इस संशोधन के अंतर्गत नई धाराएं और अनुभाग जोड़े गए और सुप्रीम कोर्ट तथा उच्च न्यायालयों की शक्तियों को काफी हद तक कम कर दिया गया। इस संशोधन ने संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति प्रदान की, जिसमें न्यायिक समीक्षा का अधिकार नहीं था। इसने राज्यों से सत्ता को केंद्र सरकार को स्थानांतरित कर दिया, जिससे भारत की संघीय संरचना कमजोर हो गई।
संविधान में किए गए प्रमुख संशोधन
42वें संशोधन ने प्रस्तावना को बदलकर भारत को “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” के रूप में वर्णित किया और “राष्ट्र की एकता” को “राष्ट्र की एकता और अखंडता” में परिवर्तित कर दिया। इस संशोधन ने संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति प्रदान की, जिससे संविधान के बुनियादी ढांचे को खतरा हुआ। इसके साथ ही, इसने उच्च न्यायालयों को राज्य कानूनों की संवैधानिकता का निर्धारण करने का अधिकार भी दिया।
आपातकाल का प्रभाव और जन आक्रोश
आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश और मानवाधिकारों का व्यापक हनन हुआ, जिससे जनता में आक्रोश फैल गया। 1977 के आम चुनावों में जनता पार्टी ने “संविधान को आपातकाल से पहले की स्थिति में बहाल करने” का वादा किया और चुनाव जीते। जनता सरकार ने 43वें और 44वें संशोधनों के माध्यम से 42वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को वापस लिया, लेकिन पूरी तरह से संविधान की पूर्व स्थिति को बहाल नहीं कर सकी।
प्रस्ताव और कार्यान्वयन
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसने संविधान में संशोधन के सवाल पर अध्ययन किया। 42वें संशोधन का बिल 1 सितंबर 1976 को लोकसभा में पेश किया गया और 11 नवंबर 1976 को पारित हो गया। इस बिल को राज्यों द्वारा अनुसमर्थित करने के बाद, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 18 दिसंबर 1976 को इसे स्वीकृति दी।
संशोधन के उद्देश्य
इस संशोधन का उद्देश्य चुनाव विवादों को अदालतों के दायरे से बाहर करना, राज्यों से सत्ता को केंद्र सरकार को स्थानांतरित करना और संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति प्रदान करना था। इसके साथ ही, इसने किसी भी कानून को जो निदेशक सिद्धांतों को लागू करता है, उसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने पर असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता।
आपातकाल के बाद का परिदृश्य
आपातकाल के बाद, जनता पार्टी ने 1977 के चुनावों में जीत हासिल की और 42वें संशोधन के प्रावधानों को वापस लेने का प्रयास किया। हालांकि, इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में बहुमत होने के कारण इस प्रयास को विफल कर दिया। जनता सरकार ने 43वें और 44वें संशोधन के माध्यम से 42वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को बदलने का प्रयास किया, लेकिन पूरी तरह से सफल नहीं हो सकी।
कानूनी चुनौतियां
42वें संशोधन की संवैधानिकता को मिनेर्वा मिल्स बनाम भारत संघ मामले में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 1980 में अपने निर्णय में संशोधन के दो प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया। इस निर्णय ने संविधान की मूल संरचना सिद्धांत को और मजबूत किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संसद को संविधान संशोधन की सीमित शक्ति प्राप्त है और इसे असीमित शक्ति में नहीं बदला जा सकता।
विरासत
आपातकाल और 42वें संशोधन ने भारतीय लोकतंत्र पर गहरा प्रभाव डाला। यह समय नागरिक स्वतंत्रता के हनन और लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन का था। हालांकि, इस अवधि ने भारतीय जनता को लोकतंत्र की रक्षा के महत्व को समझाया और भविष्य में सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ सतर्क रहने की आवश्यकता को रेखांकित किया। 42वें संशोधन की विवादास्पद प्रकृति और इसके बाद की घटनाओं ने भारतीय संविधान और लोकतंत्र के महत्व को और भी स्पष्ट किया।
42वां संशोधन और आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने न केवल संविधान में व्यापक परिवर्तन किए, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता और न्यायिक स्वतंत्रता पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस संशोधन ने सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ जागरूकता बढ़ाई और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के महत्व को रेखांकित किया। आज, 42वें संशोधन की घटनाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सतर्कता और जागरूकता आवश्यक है।