गंगा सप्तमी, हिंदू परंपरा में बड़ा महत्वपूर्ण और शुभ दिवस है। इसे आज और कल पूरे भारत में बड़े उत्साह से मनाया गया। कल ही के दिन प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी से अपना नामांकन भरा और माँ गंगा को यह अवसर समर्पित किया। इस वर्ष, 14 मई को, द्रिक पंचांग के अनुसार, देवी गंगा की परोपकारी उपस्थिति और आशीर्वाद में विश्वास करते हुए भक्त गण उनकी पूजा अर्चना कर रहे हैं।
किंवदंती और महत्वः
यह परंपरा हिंदू पौराणिक कथाओं में, गंगा के पृथ्वी पर उतरने की सुंदर कहानी से जुड़ी हुई है। जब माँ गंगा का मानवता के लिए धरती पर अवतरण हुआ, उनका तीव्र वेग और प्रकोप झेलना किसी के लिए भी मुश्किल था। ऐसी परिस्थति में पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीवन का गंगा के प्रभाव में आकर नष्ट होना तय था। तब समस्त देव गणों ने भगवान शिव की आराधना की और आनेवाले इस प्रकोप से बचाने की विनती की। करुणामयी भगवान शिव ने तब अपनी विशाल जटा खोल कर माँ गंगा को उसपर उतरने का आग्रह किया ताकि उनके भीषण वेग को कमकर रोका जा सके।
गंगा सप्तमी का ही दिन था जब माँ गंगा धरती पर उतरी थीं। बस तब से गंगा को पापों की शुद्धि करने वाले और सकारात्मकता देने वाले के रूप में पूजते हैं।
रीति-रिवाज और अवलोकन:
भक्तगण सुबह के पहले ही समय में पावन गंगा जल में स्नान करते हैं, आध्यात्मिक शुद्धि की कामना करते हैं। दिये को जल में जलाकर उसे बहने देना, देवी की प्रार्थना का प्रतीक होता है। देवी गंगा को माला और मिठाई का अर्पण किया जाता है, और शाम की विशेष आरती में उनकी कृपा के लिए प्रार्थना की जाती है। दीप दान, पूजन और कृतज्ञता का प्रतीक है। गरीबों और असहायों के लिए भोजन, कपड़ा और पानी का दान, दया की भावना को दर्शाते हैं। गंगा किनारे बैठकर पंचाक्षरी और महा मृत्युंजय मंत्र का पाठ करते समय, पवित्रता की भावना ऊर्जावान होती है।
देशभर में उत्सव:
हरिद्वार के पवित्र घाटों से लेकर ऋषिकेश के शांत किनारों और त्रिवेणी संगम की मिलन-स्थलों तक, भक्तगण अपनी भक्ति को व्यक्त करने के लिए एकत्र होते हैं। ये स्थान गंगा के प्रति गहरी श्रद्धा को पुनः साकार करते हुए विशेष पूजाओं और गहन प्रार्थनाओं के लिए केंद्र बन जाते हैं।
निष्कर्ष:
गंगा सप्तमी, लाखों के श्रद्धालुओं के धार्मिकता में अटल विश्वास का प्रतीक है। जब भक्तगण प्रार्थना और रीति-रिवाज में लिप्त उनके किनारे पर एकत्र होते हैं तो नदी शुद्धता, दया और आध्यात्मिक जागरूकता का प्रतीक बन जाती है। इस वार्षिक उत्सव में, मानवता और प्रकृति के बीच संगम की अनंत बंधन की याद दिलाते हुए, सभी को जीवन की पवित्र अवधारणाओं की पुनः स्मृति होती है।