16वीं शताब्दी में राजा कंस नारायण द्वारा की गई पहली दुर्गा पूजा से लेकर यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल होने तक, दुर्गा पूजा का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सफर। दुर्गा पूजा, जो भारत के पूर्वी राज्यों खासकर पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और ओडिशा में अत्यधिक धूमधाम से मनाई जाती है, एक धार्मिक और सांस्कृतिक महोत्सव है, जिसे न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में हिन्दू समुदाय बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाता है। यह पर्व देवी दुर्गा की आराधना के लिए समर्पित है, जिन्हें शक्ति और शक्ति का प्रतीक माना जाता है। हर साल शरद ऋतु में आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी से नवमी तक यह पर्व मनाया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह भव्य आयोजन कब और कैसे शुरू हुआ?
दुर्गा पूजा की शुरुआत
दुर्गा पूजा का उल्लेख प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में मिलता है, और इसकी उत्पत्ति का संबंध कई मान्यताओं और कथाओं से है। एक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार, देवी दुर्गा की पूजा सर्वप्रथम राजा सुरथ द्वारा की गई थी। यह कथा मार्कंडेय पुराण में विस्तार से बताई गई है। राजा सुरथ, जिन्होंने अपना राज्य खो दिया था, ने ध्यान और तपस्या द्वारा देवी दुर्गा की आराधना की और उन्हें वापस अपना राज्य प्राप्त हुआ। वहीं, एक अन्य कहानी के अनुसार, त्रेता युग में भगवान राम ने रावण का वध करने से पहले देवी दुर्गा की पूजा की थी। राम ने असुर राज रावण के आतंक को खत्म करने के लिए माँ दुर्गा की आराधना की और उनसे शक्ति प्राप्त कर विजय हासिल की। इसे “अकाल बोधन” भी कहा जाता है, क्योंकि यह पूजा देवी दुर्गा की परंपरागत वसंत ऋतु में नहीं, बल्कि शरद ऋतु में की गई थी।
बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत
दुर्गा पूजा आज विश्वभर में प्रसिद्ध है, लेकिन इसकी शुरुआत कब हुई, इस बारे में कम लोग जानते हैं। अविभाजित बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत 16वीं शताब्दी के अंत में, वर्ष 1576 में मानी जाती है। यह पूजा वर्तमान बांग्लादेश के ताहिरपुर में राजा कंस नारायण द्वारा पहली बार कराई गई थी। इसके बाद, कोलकाता में दुर्गा पूजा का पहला आयोजन 1610 में बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार) के राय चौधरी परिवार ने किया था, जब कोलकाता एक छोटे से गांव ‘कोलिकाता’ के नाम से जाना जाता था। कुछ समय बाद, शोभा बाजार इलाके में भी दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया, जिसे कोलकाता के शोभा बाजार राजबाड़ी में आश्विन शुक्ल पक्ष के दौरान नवरात्रि पर मनाया गया। इसके बाद, बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर के राज परिवार में भी दुर्गा पूजा की परंपरा शुरू हुई, और धीरे-धीरे इस उत्सव के आयोजकों की संख्या में बढ़ोतरी होती गई।
सार्वजनिक पूजा की परंपरा
हालांकि दुर्गा पूजा की शुरुआत घरों और परिवारों में व्यक्तिगत रूप से होती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह सार्वजनिक रूप से मनाई जाने लगी। यूनेस्को ने बंगाल की दुर्गा पूजा को विश्व विरासत का दर्जा प्रदान किया। 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, दुर्गा पूजा को बंगाल के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा माना जाने लगा। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में, इस पर्व ने राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को भी ऊर्जा दी। दुर्गा पूजा के पंडालों में सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियां होने लगीं और यह त्यौहार आम जनता के बीच अधिक लोकप्रिय हो गया।
आधुनिक दुर्गा पूजा
आज, दुर्गा पूजा एक सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महोत्सव के रूप में उभरी है, जो न केवल बंगाल बल्कि पूरे भारत और दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी है। दुर्गा पूजा के दौरान, देवी दुर्गा की मूर्ति की स्थापना की जाती है और उनके साथ उनके चार बच्चों – लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियों की भी पूजा की जाती है। दुर्गा पूजा का आयोजन पंडालों में होता है, जो कला, संस्कृति और समाज के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए भव्य सजावट से सुसज्जित होते हैं। पांच दिनों तक चलने वाला यह महोत्सव धार्मिक अनुष्ठानों, आरती, नृत्य, संगीत, भोजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संगम है। प्रत्येक दिन की अपनी विशेषता होती है। महाषष्ठी, महाअष्टमी, महानवमी और विजयदशमी पर खास तौर पर धार्मिक क्रियाकलाप होते हैं। विजयदशमी के दिन, देवी दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, जो उनकी अपने मायके से वापस कैलाश पर्वत लौटने का प्रतीक होता है।
सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
दुर्गा पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बंगाली संस्कृति का एक प्रतीक है। इस त्यौहार के दौरान पारंपरिक बंगाली व्यंजन, कला, साहित्य और संगीत का उत्सव मनाया जाता है। समाज के सभी वर्गों के लोग एकजुट होकर इस पर्व को मनाते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति से संबंधित हों। इस त्यौहार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है इसका सामाजिक संदेश – शक्ति और महिला सशक्तिकरण का प्रतीक देवी दुर्गा के माध्यम से यह पर्व समाज में महिलाओं की प्रतिष्ठा और महत्व को भी दर्शाता है।
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