Bhagini Nivedita Ji Jayanti: आयरलैण्ड में जन्मी भगिनी निवेदिताजी का भारत के प्रति निस्वार्थ समर्पण

Bhagini Nivedita Ji Jayanti

भगिनी निवेदिता का पूर्वनाम था – मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल (Margaret Elizabeth Noble)। उत्तर आयरलैण्ड के डानगैनन नामक एक छोटे-से शहर में 28 अक्टूबर 1867 को उनका जन्म हुआ। उनके पिता सेमुएल रिचमण्ड नोबल (Samuel Richard Noble) तथा माता का नाम मेरी इसाबेल (Mary Isabel) था। केवल दस वर्ष की आयु में उनके पिता की मृत्यु के उपरान्त अभिभावक का दायित्व-पालन नाना हैमिल्टन ने किया। हैमिल्टन आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक विशिष्ट नेता थे।

पिता एवं पूर्वजों के प्रभाव तथा साथ ही नाना के आदर्श की प्रेरणा से मार्गरेट (Margaret) के चरित्र में एक ही साथ सत्यनिष्ठा, धर्म के प्रति अनुराग, देश के प्रति आत्मबोध तथा राजनीति के प्रति निष्ठा का समन्वय दृष्टिगोचर हुआ था। स्कूल की शिक्षा समाप्त कर मात्र सत्रह वर्ष की आयु में मार्गरेट ने एक शिक्षिका का जीवन ग्रहण किया।

कुछ दिनों में ही वीम्बलडन में एक विद्यालय खोलकर उन्होंने अपनी पद्धति से शिक्षा देना शुरू किया। अल्पकाल में ही एक सुशिक्षिका के रूप में उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी। धर्म-सम्बन्धी विभिन्न ग्रन्थों को पढ़कर उन्होंने वास्तविक धर्मजीवन का पथ खोज निकालने की चेष्टा की। परन्तु किसी भी प्रकार शान्ति न प्राप्त कर वे क्रमशः हताश हो गईं।

स्वामी विवेकानंद से भेंट

भारतीय सन्यासी स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) के विचारों को ग्रहण कर उनके जीवन की यह अशान्ति सदा के लिए दूर हो गई। सन्‌ 1896 के नवम्बर महीने की एक शाम स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) ने लन्दन के एक परिवार के यहाँ वेदान्त-दर्शन की व्याख्या की थी। मार्गरेट ने यहीं उनके प्रथम दर्शन किये थे। वीर संन्यासी की धर्म-व्याख्या एवं व्यक्तित्व से वे मन्त्रमुग्ध हो गई। इसके बाद स्वामीजी ने लन्दन के विभिन्न स्थानों पर भाषण एवं प्रश्‍नोत्तर प्रदान किये। मार्गरेट सभी स्थानों पर उपस्थित होकर स्वामीजी की प्रत्येक व्याख्या बड़े ही मनोयोग से सुनतीं। एक के बाद एक प्रश्न पूछकर वे अपना सब संशय दूर करना चाहतीं एवं सदा सर्वदा उन विषयों का चिन्तन किया करतीं। अन्ततोगत्वा उन्हें विश्वास हो गया कि जिस धर्मजीवन की खोज में वे इतने दिनों तक दिग्भ्रान्त हो रही थीं, उसका ठीक पता बताने में ये भारतीय संन्यासी सर्वसमर्थ हैं।

स्वामीजी ने भी धीरे-धीरे मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल (Margaret Elizabeth Noble) की सत्यनिष्ठा, दृढता एवं सर्वोपरि मानव के प्रति उनके सहानुभूतिशील मन का परिचय पाया। स्वामीजी पराधीन भारतवर्ष की दुःख-दुर्दशा तथा भारत की साधारण जनता के दुःख से अति कष्ट का अनुभव करते। उनका यह विचार था कि भारत को -यदि उन्नति करनी है तो साधारण जनता तथा नारियों की अवस्था में उन्नति करनी होगी। नारियों की उन्नति करने का एकमात्र उपाय है-उनके बीच शिक्षा का विस्तार करना। शिक्षा का विस्तार होने से नारियों में आत्मविश्वास जाग उठेगा एवं फिर वे खुद अपनी समस्याओं का समाधान कर लेने में सक्षम हो जाएँगी। इस कार्य के लिए स्वामीजी ने मार्गरेट को योग्य समझा था। उन्होंने भारतवर्ष की साधारण जनता, विशेषकर नारियों की शिक्षा प्रदान करने हेतु उनका आह्वान किया, “मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारत के कार्य में तुम्हारा एक बड़ा भारी भविष्य है। भारत के लिए, विशेषकर भारत के नारीसमाज के लिए, पुरुष की अपेक्षा नारी की-एक सिंहनी की आवशयकता है।

मार्गरेट स्वदेश, स्वजन एवं अपना प्रतिष्ठित जीवन सबकुछ छोड़कर स्वामीजी के भारतगठन के कार्य में योगदान करने हेतु 28 जनवरी 1898 को भारत पहुँचीं।

भारत आगमन के कुछ ही दिनों के अन्दर उन्होंने श्रीमाँ सारदा देवी के दर्शन प्राप्त किये। मागरिट ने श्रीमाँ को प्रेम, पवित्रता, मधुरता, सरलता तथा ज्ञान की प्रतिमूर्ति के रूप में अनुभव किया। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि श्रीमाँ एक अनुपम चरित्र की अधिकारिणी हैं तथा विधाता की एक आश्चर्यमय सृष्टि हैं। उनकी प्यारी बच्ची बनकर मार्गरेट ने स्वयं को धन्य माना। इसके कुछ दिनों बाद स्वामीजी ने मार्गरेट को ब्रह्मचर्यव्रत में दीक्षित किया। उनको नाम दिया ‘निवेदिता’। उनको उन्होंने आजीवन कठोर संयम अवलम्बन करने तथा बुद्ध की तरह मानवसेवा में आत्मोत्सर्ग करने का निर्देश दिया।

अभियान एवं लक्ष्य

भारत आने के पश्चात भगिनी निवेदिता का एकमात्र ध्येय था : भारतवर्ष की सेवा करना। स्वामीजी के इस कथन पर वे विश्वास करतीं : भारत के कल्याण में ही जगत्‌ का कल्याण निहित है। भारत का आध्यात्मिक आदर्श सम्पूर्ण जगत्‌ को सदा कल्याण का पथ दिखाएगा। इसीलिए उनकी भारतसेवा था–सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा।

स्वामीजी की इच्छा से बागबाजार (कोलकाता) के बोसपाड़ा लेन में उन्होंने एक महिला विद्यालय स्थापित कर राष्ट्रीय आदर्श के अनुसार नारियों की शिक्षा का कार्य शुरू किया। 4 जुलाई, 1902 को स्वामीजी ने शरीरत्याग किया। निवेदिता के पास शोक करने का मौका न था क्योंकि उन्हें तो अभी अनेक अपूर्ण कार्य सम्पन्न जो करने थे। भारतवर्ष को सभी तरह से जाग्रत करना होगा। भारतमाता थी उनके गुरुदेव की चिर आराध्य देवी। यहाँ निवास कर निवेदिता ने ब्रिटिश शासन के शोषण को प्रत्यक्ष अनुभव किया था। अंग्रेजों के हाथों भारतवासियों के असम्मान एवं अत्याचार ने उन्हें व्यथित एवं उत्तेजित कर दिया। उनको ऐसा महसूस हुआ कि भारतवर्ष की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा पराधीनता की ही है। उन्होंने अपने हृदय के अन्तःस्थल में यह अनुभव किया कि भारतवासियों की सारी दुर्बलता के लिए विदेशी शासन ही जिम्मेदार है। भारतवर्ष को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने की प्रबल आकांक्षा के कारण उन्होंने राजनीति से नाता जोड़ लिया। स्वामीजी के निर्देशानुसार राजनीति के साथ-रामकृष्ण मठ रामकृष्ण एवं मिशन का किसी भी प्रकार का सम्पर्क वर्जित था। लेकिन निवेदिता की दृष्टि में उस समय भारतवर्ष की स्वाधीनता सबसे अधिक आवश्यक थी। इसीलिए राजनीति न करना उनके लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं था। अतएव एकमात्र उपाय था रामकृष्ण मिशन के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क तोड़ डालना। ऐसा करना मृत्यु से भी अधिक दुखदाई होने पर निवेदिता ने वही किया। परन्तु अन्तरंग सम्पर्क कभी न टूटा। यही कारण है कि संघजननी श्रीमाँ सारदादेवी, मठाध्यक्ष स्वामी ब्रह्मानन्दजी महाराज, उनके गुरुभ्रातागण तथा मठ के सभी संन्यासियों के साथ उनका आजीवन प्रेम एवं श्रद्धा का सम्पर्क था। वे अपना परिचय ‘रामकृष्ण-विवेकानन्द की निवेदिता” कहकर दिया करतीं।

स्वामी विवेकानन्द ने जिस महान्‌ भारत का स्वप्न देखा था, उस भारतवर्ष को मूर्तरूप देने के प्रबल उत्साह से निवेदिता बैचेन हो उठी थीं। समग्र भारतवर्ष में राष्ट्रीयता का बोध जाग्रत करने हेतु वे प्राणपण से चेष्टा करने लगीं। निवेदिता जी के विचार में राष्ट्रीयता का अर्थ हे-शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, इतिहास, शिल्पकला, लोक-संस्कृति आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वदेश-बोध।

स्वामी विवेकानन्द के आदर्श को वहन कर उन्होंने भारतवर्ष में भाषण देने का दौरा शुरू किया। अपने प्रेरक भाषणों के द्वारा उन्होंने जनसाधारण में स्वामीजी के आदर्शों को समझाना शुरू किया। सभी प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक भेदभाव को भूल एकबद्ध होकर अपनी मातृभूति की सेवा के लिए अग्रसर होने का उन्होंने आह्वान किया। निःस्वार्थता, त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति भगिनी निवेदिता का आन्तरिक निवेदन जनसाधारण के हृदय को स्पर्श करता। कई लोगों में स्वदेशबोध जाग्रत हो उठा। वे विशेषकर छात्रों एवं नवयुवकों के साथ अधिक सम्पर्क करतीं। छात्रों को वे परिश्रमी एवं निर्भीक होने का उपदेश देतीं।

राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में भगिनी निवेदिता के विचार

‘कर्मयोगिन’ पत्रिका के एक अंक में भगिनी निवेदिता का एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ, जिसे उनके वेद-वाक्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यह इस प्रकार था :

  • “मेरा विश्वास है कि भारत एक है , अखंड है तथा अजेय है।
  • “राष्ट्रीय एकता के निर्माण का आधार एक घर, समान हित तथा सामान्य स्नेह की भावना होती है।
  • “मेरा विश्वास है कि वेदों और उपनिषदों में तथा विभिन्न धर्मों और साम्राज्यों के विनिर्माण में, और विद्वानों के ज्ञान तथा संतों के ध्यान में जो शक्ति मुखरित हुई है, उसी शक्ति का हमारे बीच पुनः प्रादुर्भाव हुआ है और आज इसे राष्ट्रीयता के नाम से जाना जाता है।
  • “मैं यह भी मानती हूं कि भारत का वर्तमान उसके अतीत के साथ अविच्छिन्न रूप से संयुक्त है, जिससे कि उसके भविष्य की संभावना निश्चित ही उज्ज्वल है।“
  • “हे राष्ट्रीयता मेरे पास आओ, मैं तुम्हारा उल्लास अथवा विषाद , सम्मान अथवा लज्जा किसी भी रूप में तुम्हारा स्वागत करने को तत्पर हूं। तुम मुझे अपना लो। “
  • भारतवर्ष निवेदिता के लिए एक पुण्यभूमि थी। उनके लिए भारतवर्ष का प्रत्येक मनुष्य पुण्यात्मा था। उनके यहाँ जो ग्वाला दूध देता उसने एक दिन उनसे धर्म सम्बन्धी कुछ उपदेश सुनना चाहा। उसकी बात सुनकर निवेदिता थोड़ी संकुचित हुई। अपने आपको मानो वे अपराधी समझ रही थीं। बारम्बार ग्वाले को नमस्कार करते हुए वे बोलीं, “तुम भारतवासी हो, तुम मुझसे क्या उपदेश सुनना चाहते हो? तुम लोग क्या नहीं जानते हो? तुम श्रीकृष्ण के वंशधर हो, तुम्हें मैं प्रणाम करती हूँ।

वस्तुतः भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के प्रति उनकी जो गहरी प्रतिबद्धता थी, उससे स्पष्ट होता था कि वह भारतीय जीवनधारा में पूर्णतया लीन हो चुकी थी।

भगिनी निवेदिता भारत की समर्पित स्वतंत्रता सेनानी

  • वह अरबिंद घोष द्वारा नियुक्त राजनीतिक समिति के पांच सदस्यों में से एक थी जिन्हे क्रांतिकारियों के बिखरे हुए समूहों को एकजुट करने का दायित्व सौंपा गया था।
  • वह अपने घर में वैज्ञानिकों, कलाकारों, पत्रकारों और क्रांतिकारियों के रविवार मिलन समारोह  का आयोजन करती थीं और उनमें से प्रमुख अरबिंदो के छोटे भाई बरिंद्र घोष थे।
  • भगिनी निवेदिता ने 1902 में भारत की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का गला घोंटने के लिए गठित ‘ विश्वविद्यालय आयोग ‘ की स्थापना की निंदा की।
  • उन्होंने अपनी जनसभाओं में 1905 में बंगाल को विभाजित करने के ब्रिटिश सरकार के निर्णय के विरुद्ध प्रसिद्ध क्रांतिकारी आनंद मोहन बोस द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रस्ताव के समर्थन में जोरदार वकालत की।
  • वह एक विपुल लेखिका थीं और प्रबुद्ध भारत, संध्या, और न्यू इंडिया के लिए लेखों का योगदान करती थीं।
  • अरबिंद घोष , उनके भाई बरिंद्र घोष और स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेंद्र नाथ दत्ता द्वारा संचालित क्रांतिकारी अखबार “युगांतर” की योजना 12 मार्च 1906 को निवेदिता के घर पर ही बनाई गई थी।
  • वह तिरुमालाचारी द्वारा रचित ‘बाल भारत’ और  बिपिन चंद्र पाल और द्वारा ‘बंदे मातरम’ के पीछे भी प्रेरणा स्रोत थीं।
  • उन्होंने युगांतर का निर्बाध प्रकाशन सुनिश्चित किया और जब भूपेंद्र नाथ दत्ता को कैद किया गया और उन पर 10 रुपये का जुर्माना लगाया गया तो उसे देने के लिए धन संग्रह में भी उन्होंने सहायता प्रदान की।
  • वह देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों की मदद करती थी। वह 1907 में इंग्लैंड गईं और ब्रिटिश सांसदों के साथ बैठकों और साक्षात्कारों की खबरें प्रकाशित करना शुरू कर दिया ।
  • उन्होंने निर्वासन में भूपेंद्रनाथ दत्ता, तारक दत्ता जैसे क्रांतिकारियों की संख्या में मदद की और विदेशों से क्रांतिकारी पत्रिकाओं के निर्बाध प्रकाशन और उनके वितरण के लिए धन एकत्र किया ।
  • भगिनी निवेदिता एक बहुआयामी अद्वितीय प्रतिभा की धनी महिला थीं। स्वामी जी के परिवर्तन प्रक्रिया के कठोर प्रयास ने उन्हें एक देशभक्त में बदल दिया। उन्होंने अपनी पहचान को भारतीयता की भावना में मिला दिया।

भगिनी निवेदिता : स्त्री शिक्षा में योगदान

भगिनी निवेदिता को स्कूल चलाने में वस्तुतया आर्थिक कठिनाई का ही सामना करना पड़ता था। उस समय स्कूल में लगभग सत्तर छात्राएं थीं। निवेदिता जी उन्हें भूगोल, इतिहास, सिलाई-कढ़ाई तथा चित्रकारी सिखाती थी। वह अत्यधिक अनुशासनप्रिय थी और अपनी शिष्याओं का व्यक्तिगत रूप से ध्यान रखने के कारण वहां अनुशासन बनाए रखने में सफल रही। उन्होंने अपनी शिष्याओं द्वारा बनाए गए खिलौनों तथा चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन किया। एक दिन सुप्रसिद्ध कला- पारखी आनंद कुमार स्वामी प्रदर्शनी देखने आए और उन्होंने निवेदिता की एक शिष्या द्वारा बनाई गई कल्पना की भूरि भूरि प्रशंसा की, जिससे उसे बहुत प्रसन्नता हुई।

स्कूल के पाठ्यक्रम में संस्कृत के अध्यापन की शुरुआत किए जाने के विचार से तथा अपनी शिष्याओं द्वारा ताड़ के पत्तों पर संस्कृत में लिखने की कल्पना से वह अत्यधिक आनंदित हुई।

वह अपनी शिष्याओं को धार्मिक तथा ऐतिहासिक महत्व के स्थान दिखाना चाहती थी, किंतु उनकी यह आकांक्षा पूरी न हो सकी, हालांकि वह उन्हें संग्रहालय, चिड़ियाघर , दक्षिणेश्वर तथा ऐसे ही अन्य अनेक स्थान दिखाने ले गई। उन्होंने इन स्थानों के महत्व का जो वर्णन किया, उससे ये यात्राएं और भी अधिक रोचक हो गई।

उनका सदैव यह प्रयास रहा कि वह अपनी शिष्याओं में भारतवर्ष के प्रति प्रेम की भावना उत्पन्न करे। वह उन्हें ब्रह्मों कन्या पाठशाला ले जाती थी, ताकि वे देशभक्ति के उन भाषणों को सुन सकें , जो निकट के ग्रीन पार्क में दिए जाते थे। उन्होंने अपनी शिष्याओं की हस्तकला की कृतियों को स्वदेशी-प्रदर्शनियों में प्रदर्शित कराने की व्यवस्था की, इसके साथ ही उन्होंने अपने स्कूल में कताई की कक्षाएं भी शुरू की। यद्यपि सरकार ने वंदे मातरम के गाए जाने पर प्रतिबंध लगा रखा था, किंतु वह इसे नियमित रूप से अपनी शिष्याओं से गवाया करती थी। वह उसके साथ विवेकानंद की जीवनी का पाठ किया करती थी।

भगिनी निवेदिता जी बाल-विधवा शिष्याओं का ध्यान रखती थी। उन्होंने अपने स्कूल को ऐसा स्थान बना दिया था, जहां शिष्याओं को कोरी शिक्षा नहीं दी जाती थी, बल्कि वहां उन्हें मानसिक -संरक्षण भी मिलता था तथा उनमें आत्मविश्वास की भावना भी पैदा की जाती थी। सभी प्रकार की आर्थिक तथा अन्य कठिनाइयों के होते हुए भी निवेदिता जी ने स्कूल के लिए काम करने में स्वयं को सदैव धन्य माना।

समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता

उन्होंने कलकत्ता में प्लेग महामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने रोगियों की सेवा और गरीब रोगियों का विशेष ध्यान रखा और सड़कों से कचरा साफ करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उन्होंने युवाओं को स्वैच्छिक सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रेरित किया।

वह एक सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक और लेखिका थी। वास्तव में उन्हे यह आचरण अपने पिता और कॉलेज के शिक्षकों की शिक्षा से प्रेरित था कि मानव जाति की सेवा भगवान के लिए सच्ची सेवा है।

लोगों को समर्पित जीवन

1899 में कलकत्ता में प्लेग फैलने और 1906’ के पूर्वी बंगाल अकाल के दौरान उन्होंने मरीजों के इलाज के लिए अपनी जीवन संकट में डालकर लोगों की सहायता की। अकाल के दौरान लोगों का उपचार करने के बाद भगिनी निवेदिता मलेरिया उन्मूलन का बीड़ा  उठाया किन्तु वह स्वयं इसके संक्रमण में आ गई, जिसके कारण अंततः उनकी जान चली गई। 44 वर्ष की अल्पायु में 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में उनका निधन हो गया।

उनके स्मारक पर भारत के प्रति उनके योगदान को इन शब्दों में अभिलेखित किया गया है, “यहां भगिनी निवेदिता विश्राम करती हैं जिन्होंने भारत के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया था”।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. सिस्टर निवेदिता, वसुधा चक्रवर्ती, अनुवाद: सुरेन्द्र अरोड़ा, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
  2. भारत की निवेदिता, रामकृष्ण मिशन इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चर, गोल पार्क, कोलकाता
  3. द डेडिकेटेड: ए बायोग्रफी ऑफ निवेदिता, रेमंड, लेज़ेल (1953) जॉन डे कंपनी, न्यूयोर्क
  4. सिस्टर निवेदिता के संपूर्ण कार्य, निवेदिता गर्ल्स स्कूल, कलकत्ता

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