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हुतात्मा नाग्या कातकरी बलिदान दिवस- स्वतंत्रता संग्राम में जनजातियों का बलिदान

Hutatma

आज हम जिस स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं उसके पीछे लाखों स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान है, त्याग और तपस्या की गाथा है। यह उन वीरों की देन है जो युवावस्था में स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गये। यह देश की स्वतंत्रता के लिए अनगिनत महापुरुषों का अंतहीन संघर्ष है। हमारे हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास में हमने अनेक उतार-चढ़ाव सुने और पढ़े होंगे। देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की जब भी चर्चा होती है तो हम इन महत्वपूर्ण स्मृतीयों का उल्लेख अवश्य करते हैं। स्वतंत्रता के इस संग्राम में वन मे रहनेवाले जनजातियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी हमें यह नहीं भूलना चाहिए। 1857 से लेकर स्वतंत्रता संग्राम तक उन्होंने समय-समय पर सक्रिय भाग लिया और अपने प्राणों की आहुति दी। गुलामी के विरुद्ध लड़ाई क्या होती है जनजातियों ने भी अपने बलिदान से समय – समय पर दिखाया है इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है। इसके अनुरूप, आइए 25 सितंबर यानी हुतात्मा नाग्य कातकरी स्मृति दिवस पर उरण तालुका के चिरनेर में 1930 में हुए जंगल सत्याग्रह में हुतात्मा नाग्या कातकरी के नेतृत्व में किए गए संघर्ष के बारे में जानते हैं…

अत्याचारी ब्रिटिश सरकार के कार्यकाल में जनजाति समाज के वीर, पराक्रमी, योद्धा राजाओं ने अथक प्रयास से लेकिन सशर्त अपने-अपने राज्य का संचालन किया। वे अंग्रेजों के प्रभुत्व के विरुद्ध बड़े पैमाने पर लड़ रहे थे। इसी काल में हुतात्मा नाग्या कातकरी का नाम प्रसिद्ध हुआ। उरण के पास चिरनेर गांव में हुए जंगल सत्याग्रह में नाग्या कातकरी की बलिदान ऐतिहासिक हो गया। 1930 के दशक में ब्रिटिश सरकार ने जनजातियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया था। जंगल से लकड़ी, घास, फल और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। गाय-भैंसों को जंगल में छोड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इस अन्याय के विरोद्ध देशभर में विरोध प्रदर्शन प्रारम्भ हो गये, उनमें से एक है चिरनेर में अक्काबाई वन आंदोलन। भले ही हम खैरा के वृक्षों से छाल निकालनेवाले कातकरी हैं फिरभी हम जंगल के राजा हैं, भगवान राम की वानरसेना के वंशज हैं, ऐसा कातकरी गर्व से कहते हैं। उस समय गरीब जनजातियों का शोषण किया जाता था। जंगल पर एकाधिकार रखने वाले उन्हें लूट रहे थे। गांधीजी के नागरिक सत्याग्रह ने जनजाति को चिरनेर जंगल सत्याग्रह के लिए जागृत किया। उनके नेता नाग्या कातकरी थे। नाग्या का बचपन से ही जंगल से गहरा सम्बन्ध था। ये वन संसाधन सरकारी कानून और वन एकाधिकार के कारण कातकरियों को उपलब्ध नहीं थे । कातकरी समुदाय को इस झंझट से बाहर निकालने के लिए कातकरी टोली को एकत्रित किया और उन्होंने एक संगठन बनाया। उनका नेतृत्व इस बीस वर्षीय युवा नाग्या ने किया था। वे सत्याग्रह में कूद पड़े। कातकरी ने चिरनेर के जंगल में कोयता और कुल्हाड़ी के साथ सत्याग्रह में भाग लिया। इस सत्याग्रह में पांच हजार जनजातिय समाज एकत्रित हुआ था। जंगल से दूर रहने के एहसास से ही सत्याग्रह में उतरने वालों की ताकत बढ़ गई। क्योंकि वे जंगल के बिना रहने की बात सोच भी नहीं सकते थे। नाग्या के विशेष शंखनाद में उन्होंने पहाड़ के सबसे ऊँचे चोटी के पेड़ की छोर पर झंडा बांध दिया। उस झंडे को नाग्या की शक्ति के रूप में फहराया था। तब से कातकरी एक ऊंचे पेड़ पर झंडा बांधकर संघर्ष का सामना करते थे। वहां पर अक्काबाई का जंगल था। पुलिस ने उस अक्काबाई जंगल में गोलीबारी की। लोग तितर-बितर हो गये, उस भीड़ में एक गोली नाग्या की जांघ से आर-पार हो गयी। अंततः नाग्या को उसके पिता एक झोली में बिठाकर कातकरी वाडी ले गए। घायल कातकरी नाग्या अंततः अकेला पड़ गया। उन्हें अस्पताल में उपचार नहीं मिला। उनका घरेलू इलाज ही चल रहा था। वह गांव की दवा पर रहकर अपने घाव ठीक कर रहे थे। उनकी देखभाल ठकी नाम की उनकी बहन कर रही थी। लेकिन 1910 में जन्मे नाग्या युवावस्था में ही चिरनेर के सत्याग्रह में हुतात्मा हो गए।

यदि हम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जनजातीय आंदोलनों का इतिहास पढ़ें तो यह हमें चौदहवीं शताब्दी में ले जाता है। समय-समय पर, जनजातियां मुहम्मद तुगलक, बीदर के राजा, बहमनी सरदारों के खिलाफ एकजुट हुईं और उनके नियंत्रण में भूमि और किलों की रक्षा की। ब्रिटिश काल में भी उन्हें कई बार संघर्ष करना पड़ा। उस दौरान स्थानीय जमींदारों और अमीर लोगों ने जनजातियों की जमीनें हड़पने में ब्रिटिश अधिकारियों की मदद की। 1788 से 1795 की अवधि के दौरान छोटा नागपुर में तमाड़ जनजाति, 1812 में राजस्थान में भील जनजाति और 1818 से 1830 तक पूर्वोत्तर भारत में नागा, मिज़ो, लुशाई, मिशिपी, दफामत आदि जनजातियां, मुंडा, कोल, खैरनार 1832 में बिहार की जनजातियों और संथालों ने अंग्रेजों के कार्यों का कड़ा विरोध किया बिरसा मुंडा ने जनजातियों से ‘खेतों में बुआई भी न करने’ का आदेश देकर अंग्रेजों द्वारा कृषि भूमि को बेरहमी से हड़पने का अनोखे ढंग से विरोध किया था।

महाराष्ट्र में भी जनजातीय आंदोलन शुरू से ही प्रभावी था, क्योंकि स्वाभाविक रूप से वहां के शासकों की दृष्टी उनके नियंत्रण वाली प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर जमीनों, किलों और जंगलों पर हमेशा रहती थी। अंग्रेज़ जंगल से कच्चा माल निर्यात करते थे। ये सभी जनजातियाँ स्वयं को इससे बचाते हुए युद्धप्रिय हो गईं। उसमें भी जनजातीय महिलाओं का जुझारूपन कुछ और ही था. अंग्रेजों के समय में भी दशरीबेन चौधरी, झलकारी, रानी दुर्गावती, रानी गायिदजंलू, सुदेशा जैसी महिलाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी जिम्मेदारियां निभाई। आज हुतात्मा नाग्या कातकरी स्मृति दिवस के अवसर पर इन सभी के बलिदान की स्मृति सदैव महत्वपूर्ण रहेगी।

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