यहां हम विस्तार जानेंगे की कैसे होगा हमारा अखंड भारत-
- अखंड भारत (Akhand Bharat) के निर्माण के लिए पाकिस्तान पर परमाणु बम गिराकर उसे नष्ट करने वाली बेतुकी बातों को हवा नहीं देनी चाहिए।
- समय के साथ कुछ अपरिहार्य कारणों से हमारे पूर्वजों ने उपासना पंथ बदला होगा, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से हम एक ही हैं। इसका एहसास हमें अपने पड़ोसी देशों को कराना होगा। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, ब्रह्मदेश, अफगानिस्तान, ये सब देश एक समय अखंड भारत के अभिन्न अंग थे। आज स्वतंत्र अस्तित्व वाले लेकिन भारत के सहोदर नेपाल और भूटान इसके उत्तम उदाहरण हैं।
- पड़ोसी देशों को इस सांस्कृतिक एकता का एहसास कराने के लिए हर तरह से “हिंदू के रूप में” संगठित और शक्तिशाली बनना होगा, इसके लिए “स्व” का जागरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। सांस्कृतिक दृष्टि से हमारी उज्जवल परंपराओं को पुष्ट करना होगा। हमारे अंदर की विकृतियों को नष्ट करना होगा। हमारी संस्कृति की सर्वसमावेशकता की विशेषता को पुनः जागृत करना होगा।
- “स्व” का जागरण करते हुए हमें इतिहास की गलतियों को टालना होगा। उदाहरण के लिए: – भारत स्वतंत्र हुआ, राज्यों के विलय के समय राजस्थान के अमरकोट के राणा चंदर सिंह इस राज्य के पास अपने जोधपुर राज्य के साथ पीढ़ियों से चली
- आ रही दुश्मनी के कारण भारत में विलय का विकल्प होते हुए भी पाकिस्तान में विलय का विकल्प चुना। राजा हिंदू प्रजा हिंदू लेकिन फिर भी राणा चंदर सिंह ने जोधपुर राज्य भारत में विलीन हुआ इसलिए पाकिस्तान में विलय का आत्मघाती निर्णय लिया। पाकिस्तान ने अपनी फितरत के अनुसार अमरकोट का नाम बदलकर “उमरकोट” कर दिया। यहां हमें पाकिस्तान और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के बीच का अंतर समझ में आता है। आज उमरकोट के हिंदुओं की दयनीय स्थिति है। “स्व” का जागरण करते समय इतिहास की इन गलतियों को टालते हुए हमें “स्व” का ध्यान रखना होगा।
अखंड भारत का संकल्प लें और इस राष्ट्र पर्व को मनाएं।
अखंड भारत (Akhand Bharat) क्या है??
राष्ट्रीय विचारों से प्रेरित लोग 14 अगस्त को ‘अखंड भारत संकल्प दिन’ (Akhand Bharat Sankalp Diwas) के रूप में मनाते हैं। लेकिन, स्थिति यह है कि, कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर कई लोगों को इस ‘अखंड भारत’ का महत्व नहीं पता है और वे इसका विचार भी नहीं करते। इसलिए ‘अखंड भारत’ क्यों? और उसके पीछे की वैचारिक भूमिका स्पष्ट करने के लिए यह प्रयास है।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || श्रीमद भगवद्गीता अ.२ श्रो. ६३
- योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जब मनुष्य की स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, उसे स्मृतिभ्रंश होता है तो उसकी बुद्धि यानी ज्ञानशक्ति का नाश होता है। उसका सारसार विवेक नष्ट हो जाता है। और बुद्धि का नाश हो जाने पर विनाश अटल होता है। क्योंकि बुद्धि के नाश होने से उसे उसके शत्रु कौन हैं? मित्र कौन हैं? यह समझ नहीं आता। उसका “शत्रुबोध” समाप्त हो जाता है।
- स्वतंत्रता के सुख के साथ-साथ विभाजन की हमेशा दर्द देने वाली घाव ब्रिटिश जाते-जाते हमारे पल्ले में डाल गए। उस घाव की वेदना आज भी हम भोग रहे हैं। स्वतंत्रता भले ही 15 अगस्त को मिली हो, लेकिन देश का विभाजन एक दिन पहले ही यानी 14 अगस्त 1947 को हुआ था।
इतिहास का स्मृतिभ्रंश राष्ट्र का बुद्धिनाश करता है और बुद्धिनाश से शत्रुबोध समाप्त हो जाने वाले राष्ट्र का विनाश होना देर नहीं लगती। किसी सभ्यता ने… संस्कृति ने अपने इतिहास की स्मृति जिंदा नहीं रखी, उस इतिहास की कड़वी यादें और सबक… पीठ में घोंपे गए खंजर की वेदना आगे की पीढ़ियों तक नहीं पहुंचाई तो ऐसी सभ्यता, राष्ट्र का क्या होता है यह यूनान, मिस्र, ग्रीक से लेकर आज के ईरान, लेबनान और फिलिपींस के लोगों से पूछो। धर्मांध, जिहादी इस्लामी विस्तारवाद में उनकी मूल सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो गई और कुछ दशकों में उनके सिर्फ जमीन के टुकड़े बन गए।
‘अखंड भारत’ (Akhand Bharat) क्यों, इसे समझने के लिए विभाजन के कारणों को समझना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सभी तत्कालीन महापुरुषों का पूरा सम्मान रखते हुए इतिहास का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करना जरूरी है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हमेशा कहते थे, “We are a nation in the making” यानी हम राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में हैं। 150 वर्षों की ब्रिटिश शासन का असली कारण यही है कि ब्रिटिशों ने सफलतापूर्वक यह भावना हमारे समाज में बिठाई कि उनके आने से पहले हम ‘राष्ट्र’ नहीं थे। लेकिन, प्राचीन इतिहास देखें तो भारत राष्ट्र के प्रमाण महाभारत काल से लेकर सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य के काल तक भी मिलते हैं।
लेकिन, अंग्रेजों ने यहां की राष्ट्रीयता की भावना को मिटा दिया तो असली हिंदू-मुस्लिम विवाद की शुरुआत हुई। भले ही यहां विभिन्न धर्म, अलग-अलग राज्य, संप्रदाय, भाषा, पहनावा, आहार में भिन्नता हो। लेकिन, यह सभी विविधता सिंधु नदी की घाटी में उत्पन्न हुई हिंदू संस्कृति से बंधी हुई है। इसी एकता के सूत्र से 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के समय ‘हिंदुस्तान का बादशाह’ के रूप में आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह के नाम की घोषणा की गई थी। तब पूरे राष्ट्र ने उन्हें देश का बादशाह के रूप में स्वीकार किया था, इसका प्रतीक है।
ब्रिटिशों के इस दुष्ट मंशा की जड़ 1905 के तत्कालीन बंगाल के विभाजन में मिलती है। इससे उनके कुटिल षड्यंत्र का अंदाजा हमारे नेतृत्व को आना चाहिए था और उन्होंने इससे सही सबक सीखने की जरूरत थी। लेकिन, इस विरोध में उठे प्रचंड जनक्षोभ के सामने ब्रिटिशों को पीछे हटना पड़ा था। इस बंगाल विभाजन आंदोलन से समाप्त हुई हिंदू-मुस्लिम विभाजन ब्रिटिश सरकार के लिए खतरनाक थी। इसकी अगली कड़ी अनावश्यक मुस्लिम तुष्टीकरण की है।
अर्थात, मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय संघर्ष में शामिल करने का दृष्टिकोण कितना भी शुद्ध हो, लेकिन इसके पीछे किए गए कृत्य उतने ही निंदनीय थे। इससे ही अंग्रेजों की प्रेरणा से इस्लामिक गुरु आगा खान ने अलग मुस्लिम मतदाता मंडल की मांग की, जिसे ‘मॉर्ले-मिंटो सुधार’ कहा जाता है। यह मांग द्विराष्ट्र सिद्धांत की नींव थी, ऐसा कहना गलत नहीं होगा। इसके बाद हुए खिलाफत आंदोलन ने इस मांग को और भी बल दिया।
आज भले ही हमारे लिए मोहम्मद अली जिन्ना विभाजन के असली सूत्रधार हों, लेकिन महात्मा गांधी और तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने हमेशा जिन्ना को नजरअंदाज किया और आगा खान और अली खान जैसे कट्टरपंथियों को मुस्लिम समाज का आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दे दी। इससे ही एक समय के राष्ट्रवादी जिन्ना कट्टर विघटनकारी नेता बन गए। इसके बाद हुए 1928 के मुस्लिम लीग के अधिवेशन में जिन्ना ने 14 सूत्रीय मांगें पेश कीं, जिनमें अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की मांग थी। इसके बाद हुई हर राजनीतिक घटना ने इस मांग को बल दिया और जिसका परिणाम 14 अगस्त को भारत के विभाजन में हुआ।
आज का इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान… कट्टर तालिबानी विचारधारा वाला अफगानिस्तान हिंदुओं के लिए हिंदू सभ्यता विहीन जमीन का टुकड़ा बन गया है। यह घटना ज्यादा पुरानी नहीं है, जब भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान अलग हुआ। यह बिल्कुल कुछ दशकों पहले की बात है। लेकिन आज विभाजन के बारे में भारतीयों से पूछा जाए तो, ‘हां पंजाब में कुछ दंगे हुए। बंगाल में कुछ हिंदू मारे गए, रेलगाड़ियों में लाखों हिंदू सिख अपनी जान बचाकर पाकिस्तान से भारत में शरणार्थी बनकर आए’, इन चार वाक्यों में उनकी विभाजन की कहानी समाप्त हो जाती है। यही है हिंदुओं की स्मृति।
{अहिंसा परमो धर्मः
धर्म हिंसा तथैव च:}
क्या वास्तव में यह सब कुछ इतना आसान था? विदेश में और भारत में भी कुछ लोग सोचते हैं कि भारत को आजादी बहुत ही आसानी से मिल गई और इसके लिए ज्यादा कीमत नहीं चुकानी पड़ी। वस्तुतः विभाजन में लाखों लोग बिना किसी अपराध के मारे गए। उन्हें अपनी जान की आहुति देनी पड़ी। लाखों माताओं और बहनों की इज्जत लूटी गई। छोटे बच्चों को भाले की नोक पर उठाकर मारा गया। फिर भी कहा जाता है कि स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से शांति और अहिंसा की मांग के साथ लड़ा गया था! विभाजन के दर्द से गुजरे इन निर्दोष बंधुओं में से दस लोगों के नाम आज बता सकते हैं? तो इसका उत्तर ‘नहीं’ ही है। हमारे स्वतंत्रता की कीमत उन्होंने अपने जीवन देकर चुकाई। हमने उन्हें भुला दिया!
यहूदियों ने भी ऐसा ही नरसंहार झेला। साठ लाख से अधिक यहूदियों को यातना शिविरों में मारा गया। लेकिन उन्होंने अपने जख्म कभी नहीं भुलाए। इजरायल के स्थापना के बाद एक-एक होलोकॉस्ट में शामिल जर्मन अधिकारियों को पूरी दुनिया से पकड़कर लाया गया और उन पर मुकदमा चलाकर, उन्हें फांसी पर लटकाया गया। कुछ को जहां थे वहीं ढूंढ़कर मार डाला गया। विभाजन के नरसंहार के बारे में कितने मुसलमानों पर मुकदमा चलाया गया? सुहरावर्दी, जिन्ना, कासिम रिजवी पर हत्याओं के खिलाफ भारत में एक प्रतीकात्मक मुकदमा भी चलाया गया था?
कांग्रेस द्वारा हमेशा यह तर्क दिया जाता है कि लीग की हटवादी और हिंसक ‘डायरेक्ट एक्शन’ की हरकतों के कारण विभाजन को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन अगर इसे नहीं माना होता तो अधिकतम क्या होता? गृहयुद्ध ना! वह तो विभाजन के बाद भी हुआ ही! उल्टा इस अनौपचारिक गृहयुद्ध के कारण ज्यादा रक्तपात हुआ। दुनिया की पहली आधुनिक लोकतंत्र कहे जाने वाले अमेरिका में भी दासता के प्रश्न पर ऐसा ही प्रसंग आया था। लेकिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने विभाजन या गृहयुद्ध, इस सवाल की तुलना में देश की अखंडता को महत्व दिया और आज इतिहास हमारे सामने है। उच्च शिक्षित नेहरू और अन्य कांग्रेस वर्ग कैसे इस इतिहास को भूल गए, यह सवाल यहां उपस्थित होता है।
लियोनार्ड मोस्ले को पंडित नेहरू ने दिए उत्तर में नेहरू कहते हैं, “वास्तविकता यह है कि हम बूढ़े हो गए थे। संघर्ष करके हम थक गए थे। विभाजन का विरोध किया होता तो हमें स्वतंत्रता के लिए और कुछ साल इंतजार करना पड़ता और इसके लिए हमारी मानसिक तैयारी नहीं थी। अगर अखंड भारत (Akhand Bharat) और संपूर्ण स्वतंत्रता के 1930 के लाहौर प्रस्ताव पर कायम रहते तो परिस्थिति बदल गई होती।” एक बात ध्यान देने लायक है कि विभाजन के प्रस्ताव को कांग्रेस द्वारा मंजूरी दिए जाने के बाद ही मुस्लिम समाज लीग के समर्थन में खड़ा हुआ। इससे पहले 25 प्रतिशत से भी कम लोग लीग के समर्थक थे। 1945 के चुनाव में लीग को प्रस्तावित पाकिस्तान के क्षेत्रों में स्वयं के बल पर सरकार बनाने के लिए भी बहुमत नहीं मिला था। साथ ही अंग्रेजों की मानसिक स्थिति किसी भी परिस्थिति में जल्द से जल्द भारत छोड़ने की थी। मतलब कांग्रेस अगर अखंड भारत पर कायम रहती तो लीग की मांग को खारिज कर अंग्रेजों को स्वतंत्रता देना ही पड़ता।
स्मृतिभ्रंश…
स्मृतिभ्रंश का मतलब है याददाश्त खोना…! यह ऐसी बीमारी है जिसमें एक ही उपाय बताया जाता है; बार-बार उन बातों की याद दिलाना। ऐसा हमेशा लगता है कि समग्र हिंदू समाज को स्मृतिभ्रंश ने घेर लिया है क्या?
आज हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे हो गए हैं। पीछे मुड़कर देखने पर पता चलता है कि स्वतंत्रता की सबसे बड़ी कीमत अगस्त 1947 में देश के विभाजन के समय चुकानी पड़ी, इस समय 10 लाख से अधिक लोग मारे गए और लगभग 1.80 करोड़ लोगों को अपने घर छोड़कर निर्वासित होना पड़ा। स्वयं निर्वासित हुई प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती ने सटीक कहा था कि, ‘विभाजन का भूलना मुश्किल है, लेकिन उसकी याद तो और भी खतरनाक है।’ मानव इतिहास में इस सबसे बड़े विस्थापन के समय हुई हिंसा अविश्वसनीय थी। निर्दोष स्त्रियों और बच्चों पर हुए अत्याचार तो अत्यधिक चौंकाने वाले थे। सभी मानवीय मूल्यों की इस समय नृशंस पायमाल किया गया। मनुष्य और पशु में कोई अंतर ही नहीं रह गया था, निर्वासितों का क्रोध और निराशा धधकता और भयानक था।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ते समय हमें हमेशा लगता है कि हम हिंदू-मुस्लिम समस्या और उसके उपाय का इतिहास ही पढ़ रहे हैं। अंग्रेजों, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच यह सत्ता संघर्ष था। विदेशी अंग्रेजों से भारतीयों को सत्ता चाहिए थी। इसे ही भारत का स्वतंत्रता कहते हैं। लेकिन इसके बाद भारतीयों में यह सत्ता किसके पास जानी चाहिए, इस सवाल को हिंदू-मुस्लिम समस्या कहते हैं। हिंदुओं का कहना था कि, लोकतंत्र चाहिए तो मुसलमानों का कहना था कि, यहां हम ही 800 वर्षों तक शासक थे, सत्ता हमारे हाथ में आनी चाहिए। विभाजन का इतिहास केवल मुस्लिम लीग द्वारा 1940 में विभाजन की मांग किए जाने के बाद की घटनाओं का इतिहास नहीं है। वह मांग करने के लिए पहले की कारण भी इस इतिहास का हिस्सा बनते हैं। ये कारण केवल ब्रिटिश काल तक ही सीमित नहीं हैं। इतिहास में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के समय से ये कारण मौजूद हैं।
जिन्ना एक जगह अपने भाषण में कहते हैं, भारत में पहला हिंदू मुस्लिम बना तब ही पाकिस्तान का बीज बोया गया। “जिस देश में मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं, उस देश के राष्ट्रजीवन में वे कभी भी एकरूप नहीं हो सके, यह इतिहास का ध्रुव सत्य है। लेकिन उसी राष्ट्र में किसी विशिष्ट क्षेत्र में यदि वे बहुसंख्यक हो जाते हैं, तो वहां दंगे करवा कर उन्होंने अपने अलग राष्ट्र की मांग की है। फिलीपींस में मुसलमान आबादी का प्रतिशत चार प्रतिशत है, लेकिन वहां के एक द्वीप में वे बहुसंख्यक हो गए और उन्होंने अलग राष्ट्र के लिए विद्रोह किया। आज भारत में केरल और बंगाल में यही बातें हो रही हैं ना?
भारत में अंग्रेज आए और वास्तव में मुसलमानों का शासन गया। अल्पसंख्यक होते हुए भी शासक बनने के उनके जन्मसिद्ध अधिकार और मानसिकता को प्रचंड धक्का लगा, अंग्रेजों का शासन आने तक उन्हें कभी यह एहसास नहीं हुआ कि वे अल्पसंख्यक हैं। एम.जे. अकबर ने कहा है, “मुसलमानों के लिए अल्पसंख्यक होना संख्या का सवाल नहीं, बल्कि शासक होने की कसौटी है। जब तक मुसलमानों को लगता है कि, हम शासक वर्ग बनने लायक महत्वपूर्ण और निर्णायक घटक हैं, तब तक उन्हें यह नहीं लगता कि वे अल्पसंख्यक हैं। मुगल साम्राज्य के काल में भारतीय मुसलमान स्वयं को अल्पसंख्यक मानते थे क्या? और 90 साल बाद भी 1947 में निजाम का सार्वभौमत्व रहने तक हैदराबाद राज्य के मुसलमान स्वयं को अल्पसंख्यक मानते थे क्या?” शासक बनने का 1857 में दिल्ली के बादशाह का और 1947 में हैदराबाद के निजाम का प्रयास विफल हुआ और वहां के मुसलमान तब से अचानक अल्पसंख्यक बन गए।
मुसलमान एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं।’ यह सिद्धांत 1887 में ही सर सैयद अहमद ने पेश किया था। ‘द्विराष्ट्रवाद’ वह सिद्धांत है जो उन देशों में लागू होता है जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, जहां वे बहुसंख्यक हैं वहां केवल मुस्लिम एकराष्ट्रवाद होता है। वहां दूसरी संस्कृतियों के लिए कोई जगह नहीं होती। पूज्य डॉ. हेडगेवार हिंदू-मुस्लिम समस्या के बारे में बोलते हुए कहते हैं कि, “मुसलमानों को देशद्रोही कहना गलत है। क्योंकि देशद्रोही कहने का अर्थ यह होता है कि देश उनका है। जब उनके कार्य देश के लिए विघातक साबित हो रहे हों तो उन्हें देश के शत्रु ही कहना उचित है। हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है, हिंदीस्थान नहीं। हिंदुस्तान का हिंदीस्थान, इस्लामीस्थान नहीं होगा। ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए। हिंदुस्तान हिंदुओं का है और आगे भी वह ऐसा ही रहना चाहिए। यह कोई धर्मशाला नहीं है कि जहां कोई भी आए और अपना बिस्तर फैला ले। जिनका इतिहास, परंपरा, समाज, धर्म, संस्कृति, विचारधारा और हित एक हैं, उन्हीं का राष्ट्र होता है। इसके विपरीत परिस्थितियों वाले लोग एकत्र होकर एक राष्ट्र नहीं बन सकते। ऐसा होते हुए भी युवाओं को यह गलत बताया जाता है कि हिंदुस्तान को नष्ट करने या उससे मैत्री करने के लिए जो लोग यहां आए, उन सभी को राष्ट्र का घटक मान लो। जो एक-दूसरे को हराने के लिए जूझ रहे हैं, उनका मित्र बनना संभव नहीं है। बिल्ली और चूहे की मित्रता असंभव है। चूहा बिल्ली के पेट में समाहित हो जाएगा, तभी उनकी मित्रता होगी!” (डॉ. हेडगेवार, नाना पालकर, प338.373) इससे हिंदुओं के लिए शत्रुबोध कितना आवश्यक है यह समझ में आता है।
हिंदू-मुस्लिम सहजीवन संभव नहीं है, इसलिए 1947 में धर्म के आधार पर विभाजन हुआ। लेकिन एक बड़ा मुस्लिम वर्ग यहीं रहा। यहां रहते हुए वह अब गजवा-ए-हिंद का सपना देखता है, दंगे करता है। विभाजन करने लायक उनकी जनसंख्या बढ़ने पर एक बार फिर हिंदू-मुस्लिम सहजीवन संभव नहीं है, इसलिए हिंदू दूसरी विभाजन स्वीकार करेंगे क्या? एक प्रबल शक्तिशाली हिंदू प्रभाव वाला राष्ट्र के रूप में विश्व के पटल पर उदित होने के लिए विभाजन हिंदुओं के लिए मिली आखिरी मौका है, ऐसा ही कहना पड़ेगा।
अब फिर से विभाजन नहीं, कभी नहीं। हिंदुओं ने विभाजन से सबक नहीं लिया तो हर जगह छोटे-छोटे पाकिस्तान बनेंगे। आज भारत में भी जहां-जहां हिंदू इस्लामी आतंकवाद से भयभीत हैं, वे क्षेत्र छद्म रूप में पाकिस्तान ही हैं, पूर्ववर्ती अखंड हिंदुस्तान के इस्लामी आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्र की ऐसी पाकिस्तान की परिभाषा की जाए तो हमारे चारों ओर छोटे-छोटे पाकिस्तान बन रहे हैं कि नहीं, इस बारे में गांव-गांव के हिंदुओं को सतर्क रहना चाहिए। पाकिस्तान की विचारधारा को समझना चाहिए, दूसरों को समझाना चाहिए। अखंड हिंदुस्तान चाहिए तो वह हिंदू बहुसंख्यक और हिंदू प्रभावयुक्त होना चाहिए। जागृत और संगठित हिंदू समाज के बिना वर्तमान जनसांख्यिकी का अखंड हिंदुस्तान हिंदुस्तान नहीं होगा। आज बर्मा जैसे छोटे राष्ट्र ने अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए उनकी शांतिप्रिय बौद्ध संस्कृति का अनादर करने
वाले रोहिंग्याओं का मतदान अधिकार छीनकर दुनिया को एक नया विकल्प दिखा दिया है।
‘अखंड भारत’ (Akhand Bharat) की अवधारणा को वास्तविकता में लाने के लिए पूरे उपमहाद्वीप के नागरिकों में सांस्कृतिक एकात्मता की भावना होना अत्यंत आवश्यक है। कई लोगों के मन में यह व्यवहार्य नहीं है, ऐसी भावना होती है। लेकिन जर्मनी, वियतनाम के उदाहरण हमारे सामने हैं। इस भारतभूमि में प्राचीन काल से राष्ट्र जीवन चला आ रहा है, इसे भूलना नहीं चाहिए। निस्संदेह, अखंड भारत की अवधारणा को मानने वालों की संख्या कम हो, लेकिन ‘Determined minority makes history’ इसे भूलना नहीं चाहिए। ऐसे विषय को लंबे समय तक लोगों के मन में जीवित रखने का कार्य आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कुछ अन्य संगठन कर रहे हैं। भारत फिर से अखंड होगा, यह निश्चित ही है। लेकिन यह कब होगा, यह हमारे पुरुषार्थ और प्रयासों पर निर्भर है।
विभाजन की घटना कितनी भी हृदयद्रावक और दुखद हो, उसके इतिहास का अध्ययन भावनात्मक न होकर वस्तुनिष्ठ ही करना आवश्यक है। भारत का विभाजन या स्वतंत्रता केवल इतिहास नहीं है, वह वर्तमानकाल है, भविष्यकाल भी है। जब तक विभाजन के कारण और परिणाम शेष हैं, तब तक विभाजन की जलती हुई याद हिंदू के माथे पर “अश्वत्थामा की खून बहती घाव” जैसी रहेगी। यह हिंदुओं को हमेशा भारत में विभाजन के कारण नष्ट करने के लिए आप क्या कर रहे हैं यह पूछती रहेगी?
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