वाल्मीकि समाज हिन्दू धर्म की रीढ़ है जिसने पीढ़ियों तक अपमान और अभाव का जीवन स्वीकारा लेकिन न तो अत्याचारों से टूटे न ही अपने धर्म त्यागने की बात मानी।मुगलों के कारण ‘समाज के हाशिये’ पर डाल दिये गए और अंगरेजी शासनकाल में कथित रूप से ‘दलित’ कहे गए ये लोग आज राष्ट्रीय मुख्यधारा से पुनः जुड़ चुके हैं।आज वाल्मीकि समाज के लोग डॉक्टर , इंजीनियर , अधिवक्ता और राजनेता ही नहीं बल्कि प्रशासनिक अधिकारी और सैनिकों के रूप में भी अपनी सेवाएं देश को दे रहे हैं। कोरोना काल में वाल्मीकि समाज के महत्वपूर्ण योगदानों को रेखांकित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से उनके पैर धोकर उनको सम्मानित किया।
वाल्मीकि समाज हिन्दू धर्म की रीढ़ है जिसने पीढ़ियों तक अपमान और अभाव का जीवन स्वीकारा लेकिन न तो अत्याचारों से टूटे न ही अपने धर्म त्यागने की बात मानी। पहले विभिन्न स्थानों पर यह जाति भंगी, मेहतर, लालबेगी जैसे नामों से भी जानी जाती थी अब सबका सम्मिलित नाम वाल्मीकि प्रचलन में है। पेशे से सफाई (कर्मी) कर्मचारी कहलाते हैं।यह जाति बहुलता से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, चंढ़ीगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि स्थलों पर मिलती है तथा नगर गाँवों में बिखरी हुई हैं। महाराणा प्रताप के ये ‘मानस वंशज’ अपने कौशल से सदियों तक मलेच्छों – मुसलमानों के गढ़ में अपना मान और अपनी महिलाओं का सम्मान बचाने में सफल रहे ठीक वैसे ही जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ रहती है।जिस समाज ने महाकवि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki ji) जन्म देकर भगवान राम का जीवनचरित्र ‘रामायण’समाज को सौंपा उसके वंशजों ने हिंदुत्व का पताका पाकिस्तान में भी फहराए रखा यह अद्वितीय घटना है। कश्मीर से शेष हिन्दुओं को मारकर भागने या उनकी महिलाओं का बलात्कार करने ; उनको लकड़ी चीरनेवाली आरा मिल में चीरकर जश्न माननेवाले पाकिस्तान समर्थित भारतद्रोही मुसलमानों की हिम्मत नहीं हुई कि वे वाल्मीकि समाज की तरफ आँखें उठाकर देखें क्योंकि तब उनके घर बदबूखाना बन जाते।
घर में शौचालय होने का प्रचलन हमारे देश में मुस्लिमों के आगमन के बाद हुआ।घरों में शौचालय का निर्माण उस समय शुरू हुआ जब हजारों की संख्या में बनाई गई बेगमें घर से बाहर जाने पर अपने यौन सुख के लिए कथित रूप से सुरक्षाकर्मियों से संपर्क करने लग गईं। तब शक्की बादशाहों ने उनके महल से बाहर जाने पर रोक लगा दी। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत को जी भर के लूटा , मुगल तो यहीं बस गए । लाखों लोगों का जबरदस्ती मत -परिवर्तन कराया गया जिन लोगों ने नहीं माना उन्हें मार डाला गया या असहनीय यातनाएं दी गई।सबसे ज्यादा मार क्षत्रियों और ब्राह्मणों को झेलनी पड़ी,उन्हें हिंदू धर्म छोड़ने के लिए विवश किया गया।मतान्तरण नहीं करने पर जबरदस्ती उन्हें ऐसे कामों के लिए विवश किया गया जो बिल्कुल ही करने योग्य नहीं था ,उन्हीं में से एक था सिर पर मैला ढोना और गंदगी की सफाई करना।मुस्लिमों ने जबरदस्ती क्षत्रियों – ब्राह्मणों को इसके लिए मजबूर किया। वर्तमान वाल्मीकि जाति में ब्राह्मण के अनेक गोत्र पाए जाते हैं।
वाल्मीकि समाज की पहली चिकित्सक डॉ रेखा बहनवाल बताती हैं ‘मेरे पूर्वजों ने अपना धर्म नहीं छोड़ा बल्कि इस अमानवीय तथा अपवित्र काम करना स्वीकारा , यह कह सकते हैं कि अपने धर्म के लिए वाल्मिकी समाज ने बहुत बड़ा त्याग किया। इस समाज को प्रखर देशभक्ति धर्मपरायणता, हिंदू समाज रक्षक की भूमिका एवं त्याग बलिदान के लिए उचित स्थान मिलना चाहिए। उत्तर भारत में वाल्मीकि, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में सुदर्शन और मखियार गुजरात में रूखी,पंजाब में मजहबी सिक्ख के नाम से ज्ञात वाल्मिकी समाज के बारे में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने लिखा है कि ‘ वर्तमान शूद्र और वैदिक काल में शूद्र दोनों अलग-अलग है।शरीर से हष्ट पुष्ट वाल्मीकि समाज के लोग एक कुशल योद्धा जाति है। शुरुआत में शौचालय का सफाई नौकरों से कराया गया बाद में युद्ध बंदी हिंदू ब्राह्मणों और क्षत्रियों से कराया गया।धीरे -धीरे वाल्मीकि समाज शिक्षा से वंचित रह गए क्योंकि उन्हे अछूत समझा जाने लगा था। ये लोग अलग बस्ती में रहने लगे और हजारों वर्ष के अंदर वंचित समुदाय बन गए।’
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वाल्मीकि समाज का इतिहास
वाल्मीकि (Valmiki) भारत में पाया जाने वाला एक समुदाय है जो ‘रामायण’ के रचयिता भगवान वाल्मीकि के वंशज हैं।यह एक मार्शल जातीय समुदाय है जिसका पारंपरिक रूप से कार्य युद्ध करना रहा है।भारत के विभिन्न राज्यों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे-नायक, बोया, मेहतर, आदि. यह पूरे भारत में व्यापक रूप से पाए जाते हैं।उत्तरी भारत के राज्यों में इन्हें अनुसूचित जाति (Scheduled Caste, SC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। उत्तर भारत में पाए जाने वाले इस समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से सीवेज क्लीनर और स्वच्छता कर्मी के रूप में कार्य करते आए हैं। ऐतिहासिक रूप से इन्हें जातिगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा था। हालांकि, शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाकर अब यह अपने साफ़ -सफाई के कोई ५०० वर्षों से चले आ रहे पारम्परिक कार्य को छोड़कर अन्य पेशा भी अपनाने लगे हैं।इससे इनकी समाजिक स्थिति में सुधार हुई है। वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार, वाल्मीकि समाज की जनसंख्या पंजाब में यह अनुसूचित जाति की आबादी का ११ .२ % थी और दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में यह दूसरी सबसे अधिक आबादी वाली अनुसूचित जाति थी। वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की कुल आबादी १३ १९ २४१ थी। दक्षिण भारत में बोया या बेदार नायक समाज के लोग अपनी पहचान बताने के लिए वाल्मीकि शब्द का प्रयोग करते हैं।आंध्र प्रदेश में इन्हें बोया वाल्मीकि या वाल्मीकि के नाम से जाना जाता है।
इतिहासकार उदयेश रवि बताते हैं कि ‘ इस समुदाय का नाम महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki ji) के नाम पर पड़ा है। ये लोग स्वयं को संस्कृत में ‘रामायण’ और ‘योग वशिष्ठ’ जैसे ग्रंथों के रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के वंशज बताते हैं।यह महर्षि वाल्मीकि को अपना गुरु और ईश्वर का अवतार मानते हैं। बोया या बेदार नायक पारंपरिक रूप से एक शिकारी और मार्शल जाति है।आंध्र प्रदेश में यह मुख्य रूप से अनंतपुर, कुरनूल और कडप्पा जिलों में केंद्रित हैं। कर्नाटक में यह मुख्य रूप से बेलारी, रायचूर और चित्रदुर्ग जिलों में पाए जाते हैं। आंध्र प्रदेश में पहले इन्हें पिछड़ी जाति में शामिल किया गया था, लेकिन अब इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।तमिलनाडु में इन्हें सबसे पिछड़ी जाति (Most Backward Caste, MBC), जबकि कर्नाटक में अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है।’
सफाई कर्मचारी के अलावा अन्य व्यवसाय जैसे ब्रेड-अण्डा, सुअर का मांस, सब्जी, फल बेचने, पशु-पालन, सुअर-पालन, मोटर मकैनिक, ड्राईविंग, शादी-विवाहों में बैण्ड बाजे बजाने जैसे काम ये लोग करते हैं। पंजाब के वाल्मीकि कई बहिर्विवाह अपनाने वाले कुलों गोत्रों में बँटे हुए हैं- जिनमें गिल, मल्होत्रा, मट्टू, हंस, टांक, नाहर, सहोत्रा, भट्टी, सभरवाल, अटवाल, खोखला, बाली, चैहान, कल्याण, थापर, खंडयारे, तेजी, मूंग आदि प्रसिद्ध है। इनकी पुष्टि इब्टसन (इब्टसन:1961) ने भी अपने अध्ययन में की है। ये सब ऊँची पंजाबी जातियों के गोत्र हैं।यह हिंदू धर्म को मानते हैं। कश्मीर और पंजाब में निवास करने वाले कुछ वाल्मीकि सिख मतावलम्बी हैं।
मध्य प्रदेश में वाल्मीकि नगरीय क्षेत्रों में सफाई कर्मी हैं। कुछ लोग चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी-क्लर्क, वगैरह हैं। इनके कई बहिर्विवाही कुछ गोत्र (चंचरीक) हैं, जैसे पथरोल, बिल्वन, वान्यू भरूआ, मेना, कोरीसिया, लोहोट, चाओरिया, गौहर, चैहान, खरे, नरवारे, घेघट, घारू, झाझोंट, हारिया, परोची, राजाखेड़ी, कछवाहा, सिहोटे, बोहत, धौलपुरी, पिण्डपारोचे सौदे, पारोची, बागिया, चन्देलिया, नहारिया, महावते, चुटीले, बैद्य, मछन्दर, सनकट, कटारे, उरेले, मैनारे, खरारे, गोसाई, वर्मा, परोचे, सिहोता, नाहर, पथरोड़, सिहाते, मालवीय, उटमालिया, सिसोधिया, गोदिया, चन्डालिया, सेवते, सेठी, कल्छिया, सोदे, गोहरे, डागौर, कछुवा आदि। नगस्सेन (नाग पूजा) से संबंधित देवता हैं। यहां के वाल्मीकि, ऋषि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki ji) को पूजते हैं। पूरे नगर में इनके द्वारा प्रति वर्ष जगह-जगह वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है और नगर में विशाल शोभा-यात्रा निकलती है। इसके अलावा शिव, गणेश , विष्णु , मान चंडी आदि को ये लोग पूजते हैं।
समाजशास्त्री नेतराम नारायण लिखते हैं ‘ कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा, ज्ञान-अनुभव या किसी मजबूरी में कोई काम करता है तो इससे उसके समाज का कोई संबंध नहीं। यही बात हम सफाई कर्मियों के बारे में भी कह सकते हैं। भारत के कुछ ही राज्यों को छोड़, हर राज्य में वाल्मीकि समाज के मंदिर, आश्रम और संस्थाएं काम कर रही हैं। जब हम सत्ता में भागीदारी और आरक्षण में आरक्षण की बात करते हैं, तो वह वाल्मीकि समाज के विकास की ही बात है। वाल्मीकि समाज भारत के हर कोने में मौजूद है।स्थानीय कारणों से इनकी बोली-भाषा, खान-पान, रंग-रूप, और पहनावा अलग-अलग है। बावजूद इसके, वे भगवान वाल्मीकि के अनुयायी हैं। लेकिन अनेक कारणों से इनकी कोई राष्ट्रीय पहचान नहीं बन पाई और न ही इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व मिल सका। अब कुछ लोग और संस्थाएं राष्ट्रीय स्तर पर इनके विकास के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन आजादी के इतने अरसे बाद भी वाल्मीकि समाज के इने-गिने लोग ही राजनीतिक संगठनों-संस्थाओं में नजर आएंगे। सच्चाई ये है कि योग्य, अनुभवी पढ़े-लिखे लोगों के होते हुए भी यह समाज आज भी विकास में अपेक्षित महत्वपूर्ण भागीदारी नहीं कर पा रहा है।वाल्मीकि समाज के लोग भारत में ही नहीं, अनेक देशों में हैं।अनेक देशों में भगवान वाल्मीकि के धार्मिक स्थल और संस्थाएं भी काम कर रही हैं। पाकिस्तान में भी वाल्मीकि समाज के लोग और मंदिर हैं।
१८५७ की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान
१८५७ के स्वाधीनता संग्राम में आमने-सामने की लड़ाई के साथ-साथ वाल्मीकि समाज का सांस्कृतिक योगदान भी रहा था. लोगों तक अपनी बात पहुँचाने और उनमें साहस भरने के लिए ढोल-नगाड़ों, तुरही जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था।मजमें-तमाशे,स्वांग , रंगलीला ,रास,नौटंकी जैसे माध्यमों द्वारा लोगों को आकृषित किया जाता था।मंगल पांडे ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाया उससे पहले मातादीन ने ही उन्हें चर्बी वाले कारतूसों की जानकारी दी थी जिसको आधार बनाकर ही मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी।मंगल पांडे के बाद अंग्रेजों ने मातादीन को भी फांसी दे दी थी। डॉ प्रवीण कुमार ने १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से सम्बन्धित पात्रों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए उनके वंशजों को ढूंढा और उनका साक्षात्कार लिया जिससे पुस्तक अधिक विश्वनीय और रोचक हो गई है।
१८५७ के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वाल्मीकि समाज से सम्बन्धित सहजुराम व भगवान सिंह, अजब सिंह, सगवा सिंह, रामस्वरूप जमादार, रूढा भंगी, गंगू मेहतर, आभा धानुक, बालू मेहतर, सत्तीदीन मेहतर, भूरा सिंह आदि साहसी योद्धाओं के बल व पराक्रम का वर्णन मिलता है।महिला क्रांतिकारियों के शौर्य और वीरता को भी इस पुस्तक में स्थान दिया गया है।महावीरी देवी, रणवीरी देवी, लाजो देवी आदि महिलाओं के क्रांति में योगदान को विस्तार पूर्वक बताया गया है। इस पुस्तक में ऐसे योद्धाओं का भी संक्षिप्त परिचय है, जिनके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी, किन्तु १८५७ के स्वाधीनता संग्राम में उनका योगदान अमूल्य रहा था , जिनमें गणेसी मेहतर, मातादीन मेहतर, मनोरा भंगी, हरदन वाल्मीकि, रामजस वाल्मीकि, बारू वाल्मीकि, खरे धानुक और दुर्जन धानुक, जमादार रजवार, हीरा डोम आदि का नाम प्रमुख है। देश के स्वाधीनता संग्राम में वाल्मीकि समाज (जिसे मुख्यतः वर्तमान में सफाई कामगार समुदाय के रूप में जाना जाता है ) के योगदानों को डॉ. प्रवीण कुमार ने ‘१८५७ की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान’ नामक पुस्तक में सूचीबद्ध किया है।इस पुस्तक के माध्यम से इन्होंने समाज में दलितों में दलित वाल्मीकि समाज का जो १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में योगदान रहा है, उसका बखूबी वर्णन किया है।इस विषय पर ये इनकी दूसरी पुस्तक है. पहला महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ था, जो स्वतंत्रता संग्राम में सफाई कामगार जातियों का योगदान (१८५७- १९४७ ) नाम से सम्यक प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है।वाल्मीकि समाज जिसे हर कदम पर उपेक्षा का पात्र बनना पड़ता है, उस स्थिति में प्रस्तुत पुस्तक वाल्मीकि समाज की महानता और साहस का महत्वपूर्ण परिचय देती ह
अनेक प्रशासनिक अधिकारी और सैनिक है वाल्मीकि समाज से
सनातन धर्म में जातिवाद और इसके जैसी अन्य बुराइयां थीं हीं नहीं। जातिप्रथा, पर्दा प्रथा, सती प्रथा जैसी बुराइयों का समावेश सनातन धर्म में मलेच्छ और मुगलों के आने के बाद हुआ था। मुगलों में पर्दा प्रथा पहले से ही थी इसलिए उनके महल और हवेलियों में ही नित्य कर्म होते थे जिसके सफाई व्यवस्था के लिये उन्होंने गुलामों से यह कार्य कराया और हमेशा की सुविधा के लिए इसे अलग जाति बनाई। पर्दा प्रथा और सति प्रथा भी महिलाओं को इन मलेच्छो से बचाने को हमारे समाज में घर कर गई शुक्र है कि हम इन बुराईयों से बाहर आ रहे हैं.जो कि वह शहरीकरण के विस्तार के साथ साथ नगण्य ही हो गया है और अभी करोना समय में तो भारत में इनके कार्य की बहुत सराहना हुई है। कई जगहों पर आम जनता उन्हें माल्यार्पण भी कर रही है।स्वयं हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक मंचों से इनके पैर धोकर इनके प्रति कृतग्यता व्यक्त की है।
हिन्दू समाज ने वाल्मीकि बंधुओं – बहनों को देश की उन्नति में सहभागी बनाने के लिए अनेक अवसर भी सृजित किये जिसके कारण बाबा साहेब आंबेडकर जैसी महान विभूति इस देश को मिली और अनेक अन्य प्रतिभाएं भी हमारे समाज में पल्लवित -पुष्पित हुईं जो प्रशासनिक अधिकारी और सैनिक के रूप में भी देश सेवा कर रही हैं।
विलक्षण अर्थ है ‘वाल्मीकि’ का
वाल्मीकि नाम साधारण नहीं है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि कठोर तप और साधना में वे इतने मग्न हो गये थे कि उनके शरीर पर दीमक लग गयी थी दीमक का एक नाम वाल्मि भी कहा जाता है इसलिए उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। लेकिन यह तो लोक चर्चा है। जिस संस्कृत में स्वर और व्यंजन की ध्वनि भी गहरे अनुसंधान के बाद निश्चित किये गये, प्रत्येक नाम सार्थक रखे जाते थे तब वाल्मीकि नाम निरर्थक नहीं हो सकता है। वस्तुतः”वाल्मीकि” शब्द संस्कृत की दो धातुओं से मिलकर बना है। संस्कृत में एक धातु है ”वल्” जिसका अर्थ होता है केन्द्रीयभूत शक्ति। दूसरी धातु है ”मक्” जिसका अर्थ आकर्षण होता है। इन दोनों धातुओं की संधि से शब्द बना ”वाल्मीकि” जिसका अर्थ होता आंतरिक शक्ति का आकर्षण। नाम के अर्थ के संदर्भ में भी वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व को देखें। उनका अमृत्व उनके जन्म या परिवार की पृष्ठभूमि के कारण नहीं अपितु उनकी ज्ञानशक्ति के कारण है। यह ज्ञान उन्हे अपनी आंतरिक प्रज्ञा शक्ति से उत्पन्न हुआ और इसी से संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिये आकर्षण का केंद्र बने।
भगवान वाल्मीकि हमारे इतिहास के वह विरले पौराणिक विभूति हैं जिनका वर्णन लगभग सभी पुराणों में किसी न किसी संदर्भ में मिलता है। उनके जन्म की कथाएँ अलग-अलग हैं। कुछ पुराण कथाओं में उन्हें प्रचेता का ग्यारहवाँ पुत्र और महर्षि भृगु का भाई बताया है तो कहीँ महर्षि अंगिरा का वंशज, कहीँ उन्हे वनवासी बताया गया है और पिता का नाम सुमाली लिखा है। लेकिन सभी कथाओं में यह एक बात समान है कि उनका नाम रत्नाकर था, और उनका पालन पोषण वनवासी भील समाज में हुआ।वे आजीविका के लिये चाँडाल कर्म करते थे ( उन दिनों चोरी डकैती, शमशान घाट में काम करने और हिंसात्मक कार्यों से अपनी आजीविका कमाने वालों को चाँडाल कहा जाता था )। एक दिन देवर्षि नारद को रत्नाकर ने रोका और लूटने का प्रयास किया पर नारद जी ने कहा कि उनके पास तो वीणा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। लेकिन नारद जी ने पूछा कि यह सब किसलिये करते हो? रत्नाकर ने कहाकि ‘परिवार का पालन करने के लिए ‘ , देवर्षि नारद जी ने पूछा कि ”क्या तुम्हारे परिवार जन इस पाप में भी भागीदार होंगे” ? यह प्रश्न सुनकर चौंक पड़े रत्नाकर। उन्होंने घर जाकर परिवार से पूछा तो सबने पाप की सहभागिता से पल्ला झाड़ लिया। इससे रत्नाकर का हृदय परिवर्तन हो गया और ज्ञान चक्षु खुल गए । उन्होंने चाँडाल कर्म छोड़कर भक्ति आरंभ की। कठोर तप के बाद उन्हें ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो गया और उनके मुँह से व्याकरण युक्त संस्कृत के पहला श्लोक प्रस्फुटित हो गया। आगे चलकर उन्हें ऋषित्व प्राप्त हुआ और वे महर्षि कहलाये।
जिस प्रकार भगवान वाल्मीकि के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम हैं, कहीं उनकी गणना महर्षियों में है तो कहीं भगवान् वाल्मीकि कहा जाता है उसी प्रकार उनकी स्थानीय और क्षेत्रीय मान्यता के विविध रूप हैं ,कहीं संत के रूप में तो कहीं महापुरुष के रूप। ऋग्वेद के आठवें मंडल में वे ऋषि रूप में प्रतिष्ठित हैं। देश के विभिन्न स्थानों पर उनके मंदिर बने हैं और मूर्तियाँ स्थापित हैं। उनके जन्म और महर्षि बनने की कथाएँ भी अलग-अलग मतों से भरी हैं। उनकी व्यापकता किसी विवाद का विषय नहीं है बल्कि स्तुति का विषय है।
महर्षि वाल्मीकि का जन्म शरद पूर्णिमा को हुआ था। वे भारत के उन विरले विभूतियों में से एक हैं जिनकी उपस्थिति पूरे देश में और स्वरूप मान्यता है। समय और विपरीत सामाजिक परिस्थितियों के चलते भारत में जो लगभग बारह सौ वर्ष का अंधकार रहा उसमें कुछ प्रतीक उभरे, कथाओं में कुछ विसंगतियां भी जुड़ी। बावजूद इसके महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki ji) का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी समाज को प्रेरणा दे रहा है। हर समाज उन्हें अपना पूर्वज मानता है।उनके वंशज यानी वाल्मीकि समाज की गणना वंचित और उपेक्षित वर्ग में तो होती ही है ब्राह्मण समाज उन्हें ऋषि पुत्र मानता है तो वन क्षेत्र में मान्यता है कि वे भील वनवासी समाज में जन्में हैं। गुजरात और दक्षिण भारत में निषाद समाज उन्हे अपना पूर्वज मानता है। पंजाब में एक सिख उपवर्ग है जो स्वयं को क्षत्रिय मानता है और वाल्मीकि जी का वंशज। उनका यह भी दावा है कि उनके पूर्वज प्रत्यक्ष युद्ध करते थे। लेकिन आक्रांताओं ने बंदी बनाकर बल पूर्वक मैला ढोने के काम में लगाया।
महान खगोलशास्त्री थे वाल्मीकि
भगवान वाल्मीकि जयंती के अवसर पर संस्कृत के इस आदि कवि तथा ‘रामायण के रचियता के बारे में यह जान कर आपको हैरानी होगी कि भगवान वाल्मीकि एक महान खगोलशास्त्री भी थे। खगोलशास्त्र पर उनकी पकड़ उनकी कृति ‘रामायण’ से सिद्ध होती है। आधुनिक साफ्टवेयरों के माध्यम से यह साबित हो गया है कि रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भ शब्दश: सही हैं। वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान की पूर्व निदेशक सुश्री सरोज बाला ने इस संदर्भ में १६ साल के शोध के बाद एक पुस्तक ‘रामायण की कहानी, विज्ञान की जुबानी’ में कई दिलचस्प तथ्य उजागर किए हैं। आईए इनमें से कुछ पर नज़र डालते हैं। अगर हम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण को ध्यान से पढ़ें तो पता चलता है कि इस ग्रंथ में श्रीराम के जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के समय पर आकाश में देखी गई खगोलीय स्थितियों का विस्तृत एवं क्रमानुसार वर्णन है।
ध्यान रहे कि नक्ष्त्रों व ग्रहों की वही स्थिति २५९२० वर्षों से पहले नहीं देखी जा सकती है। सरोज बाला की पुस्तक के अनुसार उन्होंने प्लैनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर —संस्करण ४.१ का उपयोग किया क्योंकि यह साफ्टवेयर समय, तारीख और स्थान के साथ—साथ उच्च रिज़ोल्यूशन वाले आकाशीय दृश्य प्रदान करती है। इसी प्रकार शोधकर्ताओं ने महर्षि वाल्मीकि की रामायण के खगोलीय संदर्भों की सत्यता को मापने के लिए स्टेलेरियम साफ्टवयेर का भी उपयोग किया। इसके इस्तेमाल से भी यही पता चला कि रामायण में वर्णित ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति, तत्कालीन आकशीय स्थिति व खगोल से जुड़ी सभी जानकारियां अक्षरश: सत्य थीं। जो वर्णन रामायण में जिस वर्ष, तिथि और समय पर दिया गया है, उन्हें इन साफ्टवेयर्स में डालने पर हूबहू वैसे ही तस्वीरें सामने आती हैं। कोई भी चाहे तो इसे जांच सकता है । स्टेलेरियम (यह एक ओपन सोर्स साफ्टवेयर है , यानी इसे निशुल्क इंटरनेट से डाउनलोड किया जा सकता है) से उपरोक्त तथ्यों की परीक्षा कर सकता है ।
सरोज बाला के अनुसार, स्काई गाइड साफ्टवेयर भी स्टेलेरियम साफ्टवेयर द्वारा दर्शाए गए इन क्रमिक आकाशीय दृश्यों की तिथियों का पूर्ण समर्थन करता है। इन दोनों साफ्टवेयरों के परिणाम एक जैसे होने के कारण पाठक अपने मोबाइल, आइपैड, लैपटॉप यां कंप्यूटर पर इस पुस्तक में दिए गए आकाशीय दृश्यों की तिथियों का सत्यापन कर सकते हैं। ‘प्लेनेटेरियम सिमुलेशन साफ्टवेयरों का उपयोग करते हुए रामायण के संदर्भों की इन क्रमिक खगोलीय तिथियों का पुष्टिकरण आधुनिक पुरातत्व विज्ञान, पुरावनस्पति विज्ञान, समुद्र विज्ञान, भू—विज्ञान, जलवायु विज्ञान, उपग्रह चित्रों और आनुवांशिकी अध्ययनों ने भी किया है।’
रामायण में दिए गए खगोलीय संदर्भ कितने सटीक थे, इसका एक उदाहरण श्री राम के जन्म के समय के वर्णन से मिलता है। जब श्रीराम का जन्म हुआ तो महर्षि वाल्मीकि ने उस समय के ग्रहों, नक्षत्रों , राशियों का इस प्रकार वर्णन किया है:
” ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षट् समत्ययु: , ततश्रच द्वादशे मसो चैत्रे नावमिके तिथौ ।।
नक्षत्रे दितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पुंचसु। ग्रहेषु कर्कट लगने वाक्पताविन्दुना सह ।।
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम। कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणंसंयुतम।। “
इसका अर्थ है कि जब कौशल्या ने श्रीराम को जन्म दिया उस समय सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्पति, ये पांच ग्रह अपने—अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। यह वैदिक काल से भारत में ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति बताने का तरीका रहा है। बिना किसी परिवर्तन के आज भी यही तरीका भारतीय ज्योतिष का आधार है। जो वर्णन रामायण में है वही साफ्टवेयर में डाला जाए तो जो तस्वीर सामने आती है उसमें इन सभी खगोलीय विन्यासों को अयोध्या के अक्षांश और रेखांश —27 डिग्री उत्तर और 82 डिग्री पूर्व— से १० जनवरी ए ५११४ वर्ष ईसा पूर्व को दोपहर १२ से २ बजे के बीच के समय में देखा जा सकता था। यह चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी। यह बिल्कुल वही समय व तिथि है जिसमें समस्त भारत में आज तक रामनवमी मर्ना जाती है। ध्यान रहे कि ऐसे खगोलीय विन्यास पिछले २५००० सालों में नहीं बन पाए हैं जैसे श्रीराम के जन्म के समय थे जो लगभग ७००० साल पहले हुआ था।
यह केवल एकमात्र उदाहरण है।ऐसे सैंकडों वर्णनों को रामायण से लेकर साफ्टवेयर में डालने से पता चला है कि हर वर्णन इसी प्रकार खगोलशास्त्र की कसौटी पर खरा उतरता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राम को मिथक नहीं, न ही रामायण कोई कल्पना की उड़ान है।श्रीराम सूर्यवंशी राजकुल के ६४ वें यशस्वी शासक थे। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे। आदिकवि वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा के रूप में श्रीराम का राज्यारोहण होने के बाद रामायण की रचना आरंभ कर दी थी। इस ग्रंथ में श्रीराम का जीवनचरित संस्कृत के २४००० श्लोकों के माध्यम से दिया गया है। रामायण में उत्तकांड के अलावा छ: और अध्याय हैं: बालकांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड तथा युद्धकांड|
वाल्मीकि जी का कृतित्व
भगवान वाल्मीकि संस्कृत में काव्यविधा के जन्मदाता माने जाते हैं। यह मान्यता है कि संस्कृत की पहली काव्य रचना उन्हीं के स्वर में प्रस्फुटित हुई। भारत के लगभग सभी काव्य रचनाकारों ने अपना साहित्य सृजन करने से पहले उनकी वंदना की है। इनमें आदिशंकराचार्य भी हैं और रामानुजार्य भी, राजाभोज भी हैं और संत तुलसीदास भी है। वैदिक काल से आधुनिक काल तक भारत में ऐसा कोई काव्य रचनाकार नहीं जिनने उनका स्मरण न किया हो। उन्होंने ऋषित्व ही नहीं देवत्व भी प्राप्त किया। वे ऋग्वेद के आठवें मंडल में ऋषि हैं। उनके द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण भारत ही नहीं अपितु संसार भर का पहला महाकाव्य है। इसमें इस महाकाव्य में पच्चीस हजार श्लोक हैं और हर हजारवें श्लोक का आरंभ गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर से होता है। उनकी रामायण रचना की दो विशेषताएं हैं। एक तो इसमें सूर्य और चन्द्र की स्थिति का सटीक उल्लेख है।इससे अनुमान है कि उन्हें अंतरिक्ष या सौर मंडल का भी ज्ञान था। दूसरा रामजी के वनवास काल के वर्णन में स्थानों के नाम, उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम का जो विवरण है। यह वर्णन कल्पना से संभव नहीं हैं। स्थानों के नाम और स्थिति यथार्थ परक है इससे लगता है कि उन्होंने रामायण लिखने से पूर्व उन्होंने राम जी के वन गमन पथ की यात्रा की, और अध्ययन किया और उसी आधार पर वर्णन। उनके वर्णन में सामाजिक एकत्व और समरसता को जिस प्रमुखता से विवरण दिया गया है। विशेषकर वनवासी समाज के विभिन्न समूहो और उप समूहों में एकरूपता के सूत्र में पिरोने और विभिन्न भूभाग पर निवास रत व्यक्तियों के बीच वे कोई एकत्व स्थापित करना चाहते थे। वे सही मायने में राष्ट्र जागरण और सामाजिक एकत्व के अभियान में सक्रिय रहे। उन्होंने रामायण के अतिरिक्त भी कुछ अन्य काव्य रचनाएं भी तैयार थीं।
उन्होंने अपने पुरुषार्थ, परिश्रम या तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। वे सर्व समाज के मार्गदर्शक और पूज्य हैं। वे भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संपूर्ण समाज और भूभाग को एक सूत्र में पिरोया । वे सबके लिये एक आदर्श थे तभी तो दशरथ नंदन राम ने उन्हें धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया और वन में रहने के लिये उन्ही से सुगम स्थान पूछा। माता सीता उन्ही के आश्रम में रहीं, लव और कुश को उन्ही ने शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान दिया। उनकी स्मृतियाँ भारत के हर क्षेत्र में हैं। नेपाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, विहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ ही नहीं सुदूर केरल में भी वाल्मीकि जी के मंदिर हैं। नेपाल के चितवन जिले में वाल्मीकि मंदिर है तो उत्तर प्रदेश में तमसा, सोना और सप्त गंडक के संगम स्थल को उनकी जन्म स्थली और आश्रम होने की मान्यता है। एक दावा प्रयाग से लगभाग चालीस किलोमीटर दूर झाँसी मानिकपुर रोड पर तो एक दावा चित्रकूट में होने का है। एक दावा सीतामढी के बिठूर में तो एक दावा हरियाणा फतेहाबाद में और कोई मध्यप्रदेश के मंडला जिले में नर्मदा संगम पर बने वाल्मीकि आश्रम को ही उनकी तपोस्थली मानता है। इन सभी स्थानों पर शरद पूर्णिमा को ही पूजन भंडारे होते हैं। कहीं- कहीं तो अन्य भव्य समारोह भी आयोजित किये जाते हैं जिनकी झांकियां अद्भुत होती हैं। कोरोना काल में वाल्मीकि समाज के महत्वपूर्ण योगदानों को रेखांकित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से उनके पैर धोकर उनको सम्मानित किया। यह वर्तमान में भारतीय जीवन के बदलते परिदृश्य में वाल्मीकि समाज के सम्मान और अवसरों की उपलब्धता को रेखांकित करता है।
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